महात्मा गाँधी का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने असाधारण कार्यों एवं अहिंसावादी विचारों से पूरे विश्व की सोच बदल दी। आज़ादी एवं शांति की स्थापना ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य था। गांधी जी द्वारा स्वतंत्रता और शांति के लिए शुरू की गई इस लड़ाई ने भारत और दक्षिण अफ्रीका में कई ऐतिहासिक आंदोलनों को एक नई दिशा प्रदान की। भारतीय राष्ट्रीय पोर्टल इस विशेष आलेख के माध्यम से 'बापू' को उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
महात्मा गाँधी के जीवन एवं तत्कालीन समाज की जानकारी
महात्मा गांधी का जन्म
मोहनदास करमचंद गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को वर्तमान गुजरात राज्य के पोरबंदर जिले के मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम करमचंद गाँधी एवं उनकी माता का नाम पुतलीबाई था। वे अपने तीन भाईयों में सबसे छोटे थे। उनकी माँ पुतलीबाई बहुत सज्जन एवं धार्मिक स्वभाव की थीं जिसने गांधीजी के व्यक्तित्व पर बहुत गहरा प्रभाव डाला।
गाँधीजी जब सात वर्ष के थे, उनका परिवार काठियावाड़ राज्य के राजकोट जिले में जाकर बस गया जहाँ उनके पिता करमचंद गाँधी दीवान के पद पर नियुक्त थे। गाँधीजी ने राजकोट में प्राथमिक और उच्च शिक्षा प्राप्त की। वे एक साधारण छात्र थे और स्वभाव से अत्यधिक शर्मीले एवं संकोची थे।
गांधी जी की मां पुतलीबाई
बापू बहुत ही सीधे एवं ईमानदार व्यक्ति थे। वे अपनी दृढ़ता एवं निष्ठा के लिए जाने जाते थे। जिस छोटे से घर में गाँधीजी का जन्म हुआ था, वे घर आज "कीर्ति मंदिर" के नाम से विख्यात है। उनकी माँ पुतलीबाई एक पारंपरिक हिन्दू महिला थीं जो धार्मिक प्रवृत्ति वाली एवं संयमी थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन अपने घर एवं परिवार के लिए समर्पित कर दिया था। गाँधीजी की माँ के व्यक्तित्व ने उनके व्यक्तित्व को बहुत प्रभावित किया।
गाँधीजी अपने शुरूआती जीवन में राजा हरिश्चन्द्र नाटक से भी बहुत प्रभावित हुए। राजा हरिश्चन्द्र की सच्चाई एवं कष्टकर जिंदगी से सफलतापूर्वक निकलने की अद्भुत क्षमता ने गाँधीजी को अत्यंत प्रभावित किया। उन्होंने भी राजा हरिश्चन्द्र के दिखाये मार्ग पर चलने का मन बना लिया। गाँधीजी में कोई विशेष प्रतिभा नहीं थी न ही उन्हें खेलों में रुचि थी। वे हमेशा अकेला रहना पसंद करते थे। उन्होंने अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त कभी कोई पुस्तक नहीं पढ़ीं, लेकिन उन्होंने हमेशा अपने शिक्षकों का सम्मान किया और किसी भी परीक्षा में कभी भी नक़ल नहीं की। गाँधीजी अपने बड़े भाई लक्ष्मीदास के बहुत करीब थे। पिताजी की मृत्यु के बाद उनके बड़े भाई ने ही उनकी पढ़ाई में मदद की एवं उन्हें क़ानूनी पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेजा।
महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी
कस्तूरबा गाँधी का जन्म 11 अप्रैल 1869 को पोरबंदर में हुआ था। उनके पिता गोकुलदास माखन जी एक धनी व्यवसायी थे। कस्तूरबा गाँधी शादी से पहले तक अनपढ़ थीं। शादी के बाद गाँधीजी ने उन्हें लिखना एवं पढ़ना सिखाया।
वे गांधीजी के हर कार्य में उनके साथ दृढ़ता से खड़ी रहीं और दक्षिण अफ्रीका एवं भारत में गाँधीजी के सभी कार्यों में उन्होंने उनका साथ दिया। वे हमेशा गाँधीजी के बताए मार्ग पर चलीं और उन्होंने आश्रम के कठोर एवं सादगीपूर्ण जीवन को भी आसानी से अपना लिया। कस्तूरबा गाँधी अत्यंत धर्मपरायण महिला थीं। गाँधीजी के विचारों का अनुसरण कर उन्होंने भी जातीय भेदभाव करना छोड़ दिया। वे स्पष्टवादी, व्यवहार-कुशल एवं अनुशासित महिला थीं। उच्चतर शिक्षा के लिए गाँधीजी के लंदन जाने के बाद कस्तूरबा गाँधी ने भारत में अकेले रह कर अपने नवजात शिशु - हरिलाल का पालन-पोषण किया। गाँधीजी के चार पुत्र थे - हरिलाल, मणिलाल, रामदास और देवदास।
गांधीजी के प्राथमिक विद्यालय, राजकोट
उच्च विद्यालय से दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद गाँधीजी ने भावनगर के सामलदास महाविद्यालय में प्रवेश लिया, लेकिन उन्हें वहाँ का माहौल पढ़ाई के अनुकूल नहीं लगा।
इसी दौरान सन् 1885 ई० में उनके पिता का देहांत हो गया। परिवार के एक करीबी सदस्य ने उन्हें इंग्लैंड जाकर वकालत की पढाई करने का सुझाव दिया। गाँधीजी को भी यह सुझाव काफी पसंद आया। लेकिन उनकी माँ उनके इंग्लैंड जाने के विचार से सहमत नहीं थीं। हालाँकि बाद में वे तब मान गई जब गाँधीजी ने वहां जाकर शराब, स्त्री एवं मांस को हाथ नहीं लगाने का वादा किया। इंग्लैंड जाने से पहले जब गाँधीजी बम्बई पहुंचे तो उनकी जाति के लोगों ने उन्हें अपने जाति-वर्ग से निकाल देने की धमकी दी। उनलोगों का मत था कि विदेश जाने से व्यक्ति संदूषित हो जाता है, लेकिन गाँधीजी अपने निर्णय पर अडिग रहे, जिसके फलस्वरूप उन्हें उनके जाति-वर्ग से निकाल दिया गया। इस फ़ैसले का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा एवं 4 सितम्बर 1888 को अट्ठारह वर्ष की उम्र में वे साउथेम्पटन के लिए रवाना हो गए।लंदन में शुरूआती कुछ दिन गाँधीजी के लिए अत्यंत कठिन रहे। लंदन में द्वितीय वर्ष के दौरान वे दो भाईओं से मिले जो ब्रह्मविद्यावादी विचारधारा के थे। इन भाईओं ने उन्हें सर एडविन अर्नाल्ड द्वारा अनूदित भगवद्गीता का अंग्रेज़ी रूपांतरण दिखाया। इंग्लैंड में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद गाँधीजी राजकोट लौट आए एवं कुछ दिनों तक यहाँ रहने के बाद उन्होंने बम्बई में वकालत की शुरुआत करने का निर्णय लिया। हालाँकि बम्बई में वे खुद को स्थापित नहीं कर सके, जिसके बाद वे राजकोट लौट आए एवं यहाँ फिर से उन्होंने वकालत शुरू की।
पीटरमैरिट्सबर्ग रेलवे स्टेशन
दक्षिण अफ्रीका गाँधीजी के जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ। यहाँ उन्हें अलग-अलग तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। परिणामतः इन अनुभवों ने उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया।
सन् 1893 ई० में गाँधीजी दादा अब्दुल्ला नामक व्यापारी के विधि सलाहकार के रूप में काम करने डरबन गए। दक्षिण अफ्रीका में काले भारतीयों एवं अफ्रीकियों के साथ जातीय भेदभाव किया जाता था। इस जातीय भेदभाव का सामना गाँधीजी को भी करना पड़ा। अफ्रीका में गाँधीजी के कार्यों ने उन्हें पूरी तरह से बदल दिया।। एक दिन डरबन के एक न्यायालय में वहां के दंडाधिकारी ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने को कहा। गाँधीजी ने ऐसा करने से बिल्कुल मना कर दिया एवं न्यायालय से बाहर निकल गये। 31 मई 1893 को प्रिटोरिया जाने के दौरान एक श्वेत व्यक्ति ने गाँधीजी के प्रथम श्रेणी में यात्रा करने को लेकर अपनी नाराजगी जताई एवं उन्हें गाड़ी के अंतिम माल डिब्बे में जाने को कहा। गाँधीजी ने अपने पास प्रथम श्रेणी की टिकट होने की बात कहकर जाने से मना कर दिया, जिसके बाद पीटमेरित्जबर्ग में उन्हें ट्रेन से उतार दिया गया। सर्दी का समय था। स्टेशन के प्रतीक्षालय में गाँधीजी ठंड से ठिठुरते रहे, उसी समय गाँधीजी ने यह फ़ैसला किया कि वे अफ्रीका में रहकर भारतीयों के साथ हो रहे जातीय भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष करेंगें। इसी संघर्ष के दौरान उन्होंने अहिंसात्मक रूप से अपना विरोध जताया, जो बाद में "सत्याग्रह" के नाम से जाना गया। आज भी वहाँ शहर के मध्य, चर्च स्ट्रीट में गाँधीजी की कांस्य मूर्ति स्थापित है।
सत्याग्रह की शुरुआत
भारतीय राहत अधिनियम के पारित होने के पश्चात गाँधीजी अफ्रीका में जारी विरोध को छोड़ जनवरी 1915 में भारत लौट आये। भारत लौटने पर सबने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया।
भारत लौटने के बाद गाँधीजी ने यह निर्णय किया कि पहले एक वर्ष तक वे देश के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर लोगों की बात सुनेंगें जबकि वह खुद कुछ नहीं बोलेंगें। पूरे एक वर्ष तक देश भर में घूमने के बाद मई 1915 को गाँधीजी ने अहमदाबाद से सटे साबरमती नदी के तट पर अपना एक आश्रम बनाया, जिसका नाम उन्होंने सत्याग्रह आश्रम रखा। यह गाँधीजी के विभिन्न आश्रमों में से एक था। गाँधीजी ने सन् 1930 ई० में साबरमती आश्रम से दांडी यात्रा निकाली थी जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आश्रम के महत्व को देखते हुए भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय स्मारक की मान्यता दी।
हजारीमल की धर्मशाला
गाँधीजी ने अपना पहला सत्याग्रह सन् 1917 ई० में बिहार के चंपारण जिले से शुरू किया। अंग्रेज़ यहाँ के नील बगान के मालिकों का शोषण किया करते थे।
गाँधीजी ने इनके साथ हो रहे अत्याचार का विरोध किया। फलस्वरूप गाँधीजी को जिला प्रशासन के द्वारा जिला छोड़ने का आदेश दिया गया। गाँधीजी के इस आदेश को मानने से इंकार करने के बाद दंडाधिकारी ने उनके खिलाफ़ मुकदमा स्थगित कर दिया एवं उन्हें जमानत के बिना रिहा कर दिया। भारत में सत्याग्रह के रूप में अपने पहले प्रयोग की सफलता ने देश में गाँधीजी की प्रतिष्ठा बढ़ा दी।
असहयोग आंदोलन
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में गाँधी युग की शुरुआत सन् 1920 ई० के असहयोग आंदोलन से हुई। भारत में असहयोग आंदोलन का मुख्य लक्ष्य ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ अहिंसक विरोध जताना एवं सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत करना था।
इस आंदोलन का नेतृत्व गाँधीजी एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दल ने किया था। कई भारतीयों ने अपनी उपाधियाँ लौटा दीं एवं अपने सम्मान का परित्याग कर दिया, वकीलों ने वकालत छोड़ दी, छात्रों ने कॉलेज एवं स्कूल जाना बंद कर दिया एवं शहरों में कार्यरत हजारों लोग अपनी नौकरी छोड़ गांवों में अहिंसा एवं असहयोग का संदेश प्रसारित करने गये एवं लोगों को कानून की अवहेलना करने के लिए तैयार करने लगे। गाँधीजी ने भी 'यंग इंडिया' एवं 'नवजीवन' नामक अपने दो साप्ताहिक समाचार-पत्रों के माध्यम से लोगों तक अपनी बात पहुँचाई। सर्वत्र विदेशी कपड़ों को जला दिया गया एवं सबने अपने घरों में चरखों पर कपड़े बुनने शुरू कर दिये। सदियों से जिन महिलाओं को घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था, उन्होंने भी दांडी यात्रा में भाग लिया। हालाँकि चौरी-चौरा की घटना के बाद गाँधीजी को यह आंदोलन वापस लेना पड़ा।
गाँधीजी की आत्मकथा
गाँधीजी की आत्मकथा द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रूथ सन् 1927 ई० में प्रकाशित हुई। साढ़े तीन वर्षों के अन्दर ही इसकी तीन लाख प्रतियाँ बिक गईं। इस आत्मकथा का कई भारतीय एवं विदेशी भाषाओँ में अनुवाद किया गया है।
नमक सत्याग्रह - प्रसिद्ध दांडी यात्रा
नमक सत्याग्रह एक ऐसा अभियान था जिसका उद्देश्य औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश नमक कर के खिलाफ अहिंसक विरोध प्रदर्शन करना था। इस अभियान की शुरुआत 12 मार्च 1930 को दांडी यात्रा के रूप में हुई।
5 मई 1930 को गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया एवं सरकार ने इस आंदोलन को दबाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन सरकार को इसमें सफलता नहीं मिल पाई। अतः गाँधीजी को 26 जनवरी 1931 को मुक्त कर दिया गया। इसके बाद 5 मार्च 1931 को बापू एवं ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच एक समझौते हुआ जिसके बाद उन्हें लंदन के दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में आने को कहा गया। अंग्रेजों ने क्रूर दमन की अपनी नीति नए सिरे से निर्धारित की थी। ब्रिटिश सरकार के इस रवैये से बेहद निराश होकर गाँधीजी ने जनवरी 1932 को फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की।
गाँधीजी का अनशन
अगस्त 1932 में जब सामुदायिक अधिनिर्णय की घोषणा हुई, तब गाँधीजी जेल में थे। इस अधिनिर्णय के अंतर्गत अल्पसंख्यक वर्गों के लिए एक अलग निर्वाचन-क्षेत्र निर्धारित किया गया।
यह हिन्दू समुदाय को विभाजित करने का प्रयास था, इसलिए उन्होंने इस अधिनिर्णय का विरोध जताते हुए आमरण अनशन की धमकी दी। वे 20 सितम्बर 1932 को अनशन पर बैठ गए। इस बात ने पूरे देशभर में सनसनी पैदा कर दी। इस स्थिति को संभालने के लिए पूना अधिनियम पारित किया गया जिसके अंतर्गत विधान-मंडल में अल्पसंख्यक वर्गों को संयुक्त निर्वाचन-क्षेत्र के अंतर्गत विशेष आरक्षण प्रदान किया गया। 8 मई 1933 को गाँधीजी ने हरिजनों के हितलाभ के लिए 21 दिनों के अनशन की घोषणा की। जेल से निकलने के बाद गाँधीजी हरिजनों के हितलाभ के लिए अत्यंत तत्पर दिखाई दिये। सन् 1919 ई० से 1932 ई० तक राष्ट्र हित में निकाले जाने वाले यंग इंडिया नामक साप्ताहिक समाचार-पत्र के स्थान पर अब हरिजन समाचार-पत्र निकाला जाने लगा। सन् 1934 ई० के बाद गाँधीजी वर्धा के निकट सेवाग्राम में रहने लगे। यहाँ उन्होंने विस्तृत रचनात्मक कार्यक्रमों के लिए एक नये केंद्र का गठन किया जिसका उद्देश्य शिक्षा को सभी लोगों तक पहुँचाना था। इस कार्यक्रम में बुनियादी शिक्षा (1937) भी शामिल किया गया था।
भारत छोड़ो आंदोलन
सन 1942 में गाँधीजी ने 'भारत छोड़ो' का नारा दिया जो भारत में ब्रिटिश शासन के अंत का संकेत था। भारत एवं पाकिस्तान के विभाजन ने गाँधीजी को झकझोर कर रख दिया।
जब पूरा देश आज़ादी का जश्न मनाने में व्यस्त था, गाँधीजी नओखली में सांप्रदायिक दंगा पीड़ितों की स्थिति सुधारने की कोशिशों में लगे हुए थे। गाँधीजी अत्यंत साहसी एवं निर्भीक स्वभाव के थे। उनका जीवन और उनके द्वारा दी गयी शिक्षा इस देश के मूल्यों के साथ-साथ मानवता के मूल्यों को भी प्रदर्शित करता है। वे स्वतंत्रता-सेनानियों के लिए एक प्रकाश-स्तम्भ की तरह रहे। उन्होंने स्वंय अहिंसा के मार्ग पर चलकर दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाया।
महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी
कस्तूरबा गाँधी बहुत दिनों से श्वासनली प्रदाह से पीड़ित थीं। भारत छोड़ो आंदोलन की गिरफ्तारी एवं साबरमती आश्रम में व्यतीत कठिन जीवन का तनाव उनकी बीमारी का कारण बना। उनका अंतिम संस्कार आगा खान महल के जेल में किया गया।
अंतिम यात्रा
गाँधीजी पर बम फेंकने की घटना को दस दिन हुए थे। 30 जनवरी 1948 को जब गाँधीजी दिल्ली स्थित बिड़ला मंदिर से अपनी संध्या प्रार्थना समाप्त कर बाहर निकल रहे थे, उसी समय नाथूराम गोडसे ने उनके सीने पर ताबड़तोड़ तीन गोलियाँ चलाईं। गोली लगते ही गाँधीजी जमीन पर गिर पड़े। मरते वक्त उन्होंने दो शब्द बोले - हे राम! उनका अंतिम संस्कार यमुना के तट पर किया गया।
गाँधी स्मृति
गाँधी स्मृति नई दिल्ली के तीस जनवरी मार्ग पर स्थित पुराने बिड़ला घर का एक पवित्र भाग है। इसी जगह पर गाँधीजी के महान जीवन का अंत हुआ था।
गाँधीजी 9 सितम्बर 1947 से 30 जनवरी 1948 तक इस घर में रहे। इस पवित्र घर में उनके जीवन के अंतिम 144 दिनों की कई यादें संभाल कर रखी गई हैं। सन् 1971 ई० में इस घर को भारत सरकार ने अपने अन्दर संगृहीत कर इसे राष्ट्रपिता के राष्ट्रीय स्मारक का नाम दिया। 15 अगस्त 1973 को इसे जनता के लिए खोल दिया गया था। इस स्मारक के अन्दर एक कमरा है, जहाँ 'बापू' रहा करते थे एवं एक प्रार्थना स्थल है, जहाँ वे हर शाम जनसभा में लोगों से मिलते थे। इस भवन एवं यहाँ को परिदृश्यों को इसके पुराने रूपों में ही संरक्षित किया गया है। गाँधीजी आज भी हम सब के बीच जीवित हैं। अहिंसा एवं शांति पर दिये गये बापू के सर्वव्यापी उपदेश आज भी दुनिया भर के लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं।
अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस
गाँधीजी के जन्म दिवस को प्रत्येक वर्ष 'गाँधी जयंती' के रूप में मनाया जाता है। भारत के लोग उन्हें प्यार से 'बापू' एवं 'राष्ट्र पिता' के नाम से पुकारते हैं। वे मानवता एवं शांति के प्रतीक हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने भी 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। 15 जून 2007 के संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस "शिक्षा एवं जन जागरूकता के माध्यम से अहिंसा के संदेश को प्रसारित करने" का अवसर है। इसी प्रस्ताव के अंतर्गत स्मरणोत्सव का आयोजन भी किया जाता है। यह प्रस्ताव "अहिंसा के सिद्धांत की सार्वभौमिक प्रासंगिकता" को सुरक्षित रखने एवं "शांति, सहिष्णुता, ज्ञान एवं अहिंसा पर आधारित संस्कृति" के निर्माण में अपना योगदान देता है।
गांधी जी द्वारा बताई गई कुछ प्रसिद्ध सूक्तियां
"अहिंसा सबसे बड़ा कर्तव्य है। यदि हम इसका पूरा पालन नहीं कर सकते हैं तो हमें इसकी भावना को अवश्य समझना चाहिए और जहां तक संभव हो हिंसा से दूर रहकर मानवता का पालन करना चाहिए।"
"उस प्रकार जिएं कि आपको कल मर जाना है। सीखें उस प्रकार जैसे आपको सदा जीवित रहना हैं।"
"आजादी का कोई अर्थ नहीं है यदि इसमें गलतियां करने की आजादी शामिल न हों।"
"बेहतर है कि हिंसा की जाए, यदि यह हिंसा हमारे दिल में हैं, बजाए इसके कि नपुंसकता को ढकने के लिए अहिंसा का शोर मचाया जाए।"
"व्यक्ति को अपनी बुद्धिमानी के बारे में पूरा भरोसा रखना बुद्धिमानी नहीं है। यह अच्छी बात है कि याद रखा जाए कि सबसे मजबूत भी कमजोर हो सकता है और बुद्धिमान भी गलती कर सकता है।"
"आपको मानवता में विश्वास नहीं खोना चाहिए। मानवता एक समुद्र है, यदि समुद्र की कुछ बूंदें सूख जाती है तो समुद्र मैला नहीं होता।"
"ईमानदार मतभेद आम तौर पर प्रगति के स्वस्थ संकेत हैं।"